Friday, November 2, 2018

उस रोते हुए बोगनबेलिया को...

गुज़रना
तुम मेरी
मेरी अंतिम यात्रा को लेकर
किसी अमलतास या
बोगनबेलिया की टहनी तले से.
हिला देना उस डाल को
जो मैं छोड़ देता था अचानक से
और ढेरों फूल भर जाते थे
तुम्हारे आँचल की झोली में.
हँसते हुए बोगनबेलिया और
खिलखिलाती तुम.
एक फूल छिप जाता था
तुम्हारे बालों में कहीं.
जिसे ढूँढ निकालता था मैं
गली से ठीक एक मोड़ पहले.
गली के मोड़ से पहले मुझे ले जाना
उसी बोगनबेलिया की ओर
और हिला देना उसी डाल को.
झर जाएँगे कुछ
सुबकते फूल सफ़ेद चादर पर.
तुम मुड़कर मत देखना
उस रोते हुए
बोगनबेलिया को....!!

ठहरना किसी सुनसान दोपहरी में

ठहरना 
किसी सुनसान दोपहरी में
पल भर को 
उस अमलतास तले.
करना कोशिश ढूँढने की 
झुरमटे में
गाने वाले झींगूरों को.
और सहेज लेना यादें
ऐसी ही किसी
ऊनींदे से बियाबाँ में
गाए गए
युगल गीतों की !

इधर देखो अमलतास....!!!’

झाँक लेना
उस लाल दीवार के ओझल से
सुस्तायी शाम
के घर लौटने से पहले एक बार.
ढूँढ लेना मुझे 
लोगों की भीड़ के बीच.
मैं हाथ हिला दूँगा
अगर चली हवा
ठीक तभी.
लहरा दूँगा कुछ झालरें
पीले फूलों वाली.
और अगर
मैं न देख पाया तुम्हें
तो चढ़ जाना लाल दीवार की मुँडेर पर
और बुलाना ज़ोर से आवाज़ देकर मुझे
‘इधर मुँडेर पर हूँ
इधर देखो
अमलतास....!!!’

पीले दुप्पटे और अमलतास

इस राह से ही जाना लेकर 
मुझे अंतिम यात्रा पर
और हिला देना कोई शाख़ अमलतास की
ताकि झर जाएँ 
कुंभलाये से कुछ पीले फूल मुझपर
मैं जान लूँगा कि
आख़िरी बार
मुझे ग़ौर से देखने को झुकी हो तुम
और तुम्हारे कंधे से खिसककर तुम्हारा पीला दुप्पटा
आ गिरा है मेरे चेहरे पर....
और हाँ,
आज बता देना उसे कि
पीले दुप्पटे और अमलतास
दोनों से मुझे प्यार रहा है.....!!

मैं आकाश होना चाहता हूँ



मैं आकाश होना चाहता हूँ
और तुम्हारे पास होना चाहता हूँ. 
मीलों तक फैले
इस घास के मैदान
पारदर्शी पानी 
की नदियों सी 
तुम्हारी बाहों को 
छूना चाहता हूँ.
मेरे सामने तुम
इस धरा सी
मुझसे हो दूर
बस ज़रा सी.
मेरी तरफ़ देवदारों सी
बाहें उठाकर
मैं भी बादल सा
थोड़ा झुककर
तुम्हें चूम लेना चाहता हूँ.
आज मैं आकाश होना चाहता हूँ.
घिरकर आते 
बादलों को थाम के
इस हवा को 
मैं तुम्हारे नाम से 
इन सरगोशियों में
गुनगुनाना चाहता हूँ.
आज मैं आकाश होना चाहता हूँ.

पहाड़ ओढ़ लेते हैं ख़ामोशी

पहाड़
ओढ़ लेते हैं
ख़ामोशी शाम से.
लपेट लेते हैं
सफ़ेद ऊनी कम्बल
बादलों से बुने हुए.
रात लेती है आग़ोश में
देवदारों को.
चाँद मुस्कुरा कर चल देता है
अगले चौराहे के लैंपपोस्ट तले बैठने.
रख देता है झोला बाईं ओर
उठा लेता है बाँसुरी.
राग पहाड़ी
हवा के ठंडे झोंके सा टकराता है
खिड़की के काँच पर.
घड़ी की सुइयाँ खींच देती हैं
परदे को थोड़ा और.
उधर मैदानों में
कोई खोलता है खिड़की
झाँकता है बाहर.
साफ़ है आसमान
तारे भी हैं आकाश में.
सफ़ेद डंडे
नीले हों तो 

नींद भी आ जाए.

एक पेड़ जामुनी रंग के फूलों का

आ जाना फिर से 
समय मिले तो
पहाड़ से नीचे उतरती
कच्ची सड़क वाले मोड़ पर.
बारिश हो तो 
ज़िद कर लेना
ख़ुद से.
मिलने के लिए
उस इक्कीस जुलाई की तरह
जिसके
लिए तुम लगाती थी
केलेंडर की तारीख़ों पर गोले.
‘प्लीज़ प्लीज़ प्लीज़’
कहकर ज़िद से मना लेना ख़ुद को.
आ जाना
अगर बारिश हो
उस रोज़ की तरह
जब आयी थी तुम
‘बस, पाँच मिनट के लिए’
नज़र बचाकर
वक़्त की भागदौड़ से.
करना वही ज़िद
पहाड़ के मुहाने पर खड़े होकर
दुप्पटे से हम दोनों को ढँकने की.
आ जाना
याद करेंगे
उन काले धागों को
जो तुम ले आती थी
जाने कहाँ से.
तुम्हें लगता था जो
बचा लेगा
दुनियाभर की बुरी नज़रों से
हम दोनों को.
आना भरी बरसात में
ढूँढेगे उस जामुनी रंगे ताबीज़ को भी
जो खो गया था
तुम्हारे हाथ छूटकर.
‘ये अच्छा नहीं हुआ’
तुमने डर कर कहा था.
तुम्हारे वहम पर हँसेंगे
ये बेकार की बातें हैं
मैं फिर दोहरा दूँगा.
आना ज़रूर
मैं दिखाऊँगा तुम्हें
मैंने ढूँढ ली है
उस ताबीज़ खो जाने की जगह.
वहाँ एक पेड़ उग आया है
जामुनी रंग के फूलों का