Friday, September 4, 2009

मार्च के आने तक...!!!

तुम्हारे
यूँ सहमकर
देखने से
कुछ पहले ही
मैं समझ गया था/ कि
हवा कुछ बदलाव है.
पुरवाई
रातभर में तो नहीं बनती पछुआ
और न ही
पतझढ़
एक दिन में आता है कभी.
तो क्या
मैं मान लूं
तुम्हारी इस चुप्पी
की सर्दियाँ आहट दे चुकी थी
बहुत पहले से ही .
या यूँ कि
बीते सावन में उस रोज़
सुबकते अमलतास
के तले तरबतर होते जा रहे रिश्तों
के बर्फानी हो जाने का
यकीन हो चला था.
मैं न भी चाहूँ
तो भी
इस हकीकत को तो नहीं
टाल सकूँगा कि
कचनार के झींगुरों वाले फूल
पलों में नहीं मुरझाते.
मार्च के आने तक.

Tuesday, June 23, 2009

कविता का अन्तिम पैरा...



मेरे प्रेम की शुरुआत
मेरी कविता के अंत में नहीं है.
और न ही वह सच है
जो मैंने लिख डाला है
कविताओं में.
अंतहीन, अनंत
हर्फ़ दर हर्फ़
बनते शब्द/
और उनके गूढ़ और जटिल
अर्थों की तरह ही
मेरी संवेदनाएं
और
मेरा प्रेम भी
शायद यूँ ही उलझा हुआ है/ और
रहेगा/ बिना कहे ही
शायद समझ पाओ तो
सही/ या फिर मायूसी
सी सहोगी
सही शब्दों को सुनने के
इंतजार में
ख़त्म होने वाली इस
कविता की तरह.

Monday, May 11, 2009

एक अच्छे आदमी के लिए दो मिनट...

वो अच्छा आदमी था
बेजुबान काम करने वाला.
उसने कभी शिकायत नहीं की
पगार बढ़ने की मांग भी नहीं.
और न ही कुर्सी के पास टेबल फैन लगाने की
वो अच्छा आदमी था.
चिल्लाने वाले मोटे बॉस
की नक़ल भी
कभी नहीं की उसने,
ड्यूटी के बाद भी नहीं.
न कभी डेस्क की गलतियाँ
'प्रूफ़ वालों' पर डालने की परम्परा का विरोध.
'मेरा उससे अधिक वास्ता नहीं रहा, लेकिन प्रोडक्शन वालों ने बताया
वो अच्छा आदमी था.' जीएम ने कहा.
कल ही उसने
मिन्नत की थी पहली बार
'वीकली ऑफ एडजस्ट' करने के लिए,
वोह छुट्टी पा गया, ह
मेशा के लिए.
कृष्ण कुमार अच्छा आदमी था.
दो मिनट का मौन
बहुत है उस जैसे
अच्छे आदमी (कर्मचारी) के लिए.
अब जाइये,
लिखिए, टाईप कीजिये
दुनिया भर के बुरे लोगों की खबरें.
(यह कविता साल 2003 में दुर्घटना में मारे गए दैनिक भास्कर के प्रूफ़ रीडर कृष्ण कुमार के लिए लिखी थी)

Saturday, May 2, 2009

चाँद गुस्से में है...

अब ऐसा क्यों
है कि मुझे
अँधेरी रातें रास नहीं आ रही
पहले की तरह।
झील के उस पार
छोटी सी पहाड़ी के सिरे पर
टिमटिमाने वाले दिए की
रौशनी भी नज़र नहीं
आ रही।
क्यों स्याह आसमान में
आवारा घूम रहा बादल का
यह टुकडा
आज मेरा नाम नहीं पुकार रहा.
क्यों झील के पानी पर
भी आज नहीं थिरक रही चांदनी.
क्यों
उसके हाथों की ठंडी
छुअन मेरी उंगलिओं के पोरों से
होते हुए नहीं पहुँच रही
मुझ तक एक गहरी
ठंडी साँस बनने के लिए
.....और ये चाँद आजकल गुस्से में क्यों है?

बरगद नहीं, पीपल...




वह बरगद नहीं है


जिसकी छाँव में


रह पाते कई जन सुरक्षित


धूप, पानी और तूफानों से।


या जिसकी मजबूत डालों पर


घने पतों के बीच


छिपाछिपी खेलते रहते।


न ही वह इतना फैलाव लिए रहा


ख़ुद में कि


उसके दायरे में


भूखी नज़रों से बचे रहते


चिड़िया के कुछ बच्चे


और बसे रहते अपनी ही दुनिया में।


असल में


उसने कोशिश ही नहीं की


बरगद बनने की


जिसके विस्तार में


जगह पा सकते कई घोंसले।


फ़िर भी उसने


फैलाए रखी अपनी डालें


हर पंछी पखेरू के लिए,


अपनी जड़ों के नजदीक


पंहुंचने दी सूरज की रौशनी


ताकि पल सकें


कुछ और नन्हें पौधे भी।


जुटाई इतनी छाँव भी


जो काफ़ी रही सुस्ताने भर के लिए।


हाँ, यह सिर्फ़ मैं जानता हूँ


इतना करने के बाद भी


पीपल का वह पेड़


बरगद क्यों नहीं बना।
(पिता जी के लिए..)

Thursday, April 30, 2009

आगे धूप है...


अब सुलग रहे हो


झुलसे तन


और छटपटाहट का


क्रंदन करती आत्मा के बीच।


इस तरह के


कठोर धरातल के


सूखकर चटक रहे


संबंधों को


सींचने का


तुम्हारा प्रयास कितना


कामयाब रहा है


तुम


अंदाजा लगा सकते हो।


मैं उसी दिन


तुम्हें कहना चाह रहा था।


जिस दिन तुमने


बढाया था


कदम


इस निर्जन और


कंटीली पत्थरीली राह पर।


उस घर का दरवाजा


बहुत दूर है/ समझाया कि


यहीं रहो इसी आकार में


विश्वास और चाहत की


छाया में।


मैंने कहा था ना


आगे धूप है॥!


"जिंदगी धूप, तुम घना साया"

Monday, March 30, 2009

मैं महानगर बनता जा रहा हूँ...

मैं महानगर बनता जा रहा हूँ

और इसका अहसास भी

हुआ मुझे उसी रोज़

जब मैंने पाया

खुद को

हर दिशा से आई परेशानियों से घिरे हुए जो

मुझमे घर बनाने को आतुर थी।

तब मैंने जाना

इन परेशानियों के चेहरे

जाने पहचाने तो हैं

परिचित नहीं।

तभी मुझे लगा

मैं महानगर बनता जा रहा हूँ।

फ़िर उस रोज़

मेरे दिमाग के बीचोंबीच

एक चौराहे पर विचारों का

ट्रेफिक जाम हो गया।

पीछे कहीं फंस गयी यादों की चिल्लपों

के बाद मैं थम गया, लाल बत्ती सा।

तब मुझे लगा मैं महानगर बनता जा रहा हूँ।

और अभी कल ही तो

मेरे सीने से होकर गुजर रही

एक याद

वक्त की ताव न सहकर

गिर पड़ी

गश खाकर।

लोगों का हुजूम उसके चेहरे पर झुका,

मर गयी!

"अरे आगे बढो, देर हो रही है"

किसी विचार ने कहा।

और तभी मुझे लगा मैं महानगर बनता जा रहा हूँ।

Friday, March 27, 2009

चिड़िया के घोंसले में अजगर...

चिड़िया के घोंसले में
पल रहे हैं
कई अजगर।
बिल्कुल ठीक पहचाना आपने।
यह वही हैं
जो पलते रहे बरसों-बरस
आपकी आस्तीनों में
और आपने भी उन्हें पाले रखा
पालतू होने का भ्रम पाले।
दरअसल ऐसा करते समय
आपसे एक चूक हो गयी।
आपके दिमाग में बसती दुनिया
आपकी मेहनत के जुड़ते
तिनके,
उन तिनकों का घर बनाने
की उम्मीद में
आप कई चहचहाते हुए
गुदगुदे, बिना रोएँ वाले बच्चे
भी देख चुके होंगे।
और फ़िर हडबडाकर
उस समय उठ बैठे होंगे
पसीने से तरबतर,
जब आपके सपने में आपकी आस्तीन
के सांप कुलबुलाने लगे होंगे
उन बिना रोएँ वाले बच्चों को
निगलने को।
तब आपने उठकर देखा होगा
वो घोंसला चिड़िया का
जिसमें अजगर पल रहे थे।

Friday, March 20, 2009

तुम सब ठीक कहते हो...

हर्फ़ इस हद पर आकर

खो जाते हैं कहीं

आवाज़ भी

पड़ने लगती है

मध्यम

तन्हाई के दरम्यान

उठती हूक सीने को चीरती है

मेरे शब्दों के अर्थ

ज़रा-ज़रा होकर बिखरते हैं

आंखों के आगे पुरनम तैरती है।

तब बोल पाना

कितना दुश्वार होता है।

यह मैं समझ सकता हूँ

मैंने देखा है तुम्हें

रोटी के निवाले को

सूखे गले से उतारने का जतन करते।

उस वक्त वह टुकडा

किसी कठोर सच्चाई जैसा लगता है

जिसपर आंसुओं का पानी

बेअसर रहता है।

रुंधे गले

से रह-रहकर सुबकता दिल,

मचलती भावनाओं

और उछलते विद्रोह के बीच

जाने कहाँ से वह शून्य आ जाता है

जहाँ मेरे शब्द खो जाते हैं

अर्थ गर्त हो जाते हैं।

मेरे हर्फ़ हवा और

मैं मिट्टी

तुम्हारे तर्कों के बीच

मैं मान लेता हूँ की

तुम सब ठीक कहते हो।


Wednesday, March 18, 2009

भूखमरी...

टिक्की खाते-खाते

एक मरियल कुत्ते को देखना

और चर्चा करना

देश में गरीबी

और भूखमरी की।

'भइया, जरा चटनी और देना'

.....हाँ, तो मैं कह रहा था

देश में इन भूखमरों ने

सारी तहजीब और तमीज

उठाकर रख दी हैं

एक पत्तल पर.

ऐसे खाते हैं मांगकर, छीनकर

जैसे कभी कुछ देखा ही न हो.

'ओ भैया.... एक टिक्की और देना...'

हाँ...मैं भी एक और लूँगा.

आप ठीक कह रहे हैं.

इसी वजह से मैं तो

खा ही नहीं पाता ठीक से

बाहर कहीं रेहड़ी-वेहडी पर,

अरे भईया,

पहले इस कुत्ते को भगाओ यहाँ से,

घूर रहा है साला....!!!!

Monday, March 16, 2009

एक अदद चारदीवारी...


कमरे की चारदीवारी


में घुटते दम


और बेचैनी से


एक दम भर लेने को


झांकता हूँ


खिड़की से बाहर।


अधबने, खंडहर


हो रहे मकान की दीवार में


घोंसला बनाने की चाहत में


तिनके-तिनके के लिए बेदम होती


चिडिया को देखकर


महसूस होती है


जरूरत


एक अदद घर होने की।


सर पर छत और


चौगिर्द चारदीवारी का


साया होने का सूकून


लिए मैं लौटता हूँ


चारदीवारी के भीतर।


Monday, March 9, 2009

तुम्हारी तरह...!!

चाँद भी
कभी झांकता है
आँगन की
और खुलने वाली खिड़की से
जैसे कोशिश में हो देखने की/ कि
कितना प्यार है मेरे दिल में उसके लिए
क़समें भी देता है वास्ता भी,
तुम्हारी तरह।

चांदनी भी
तो बिखर जाती है
खिड़की से सटे बिस्तर की
ठंडी सफ़ेद चादर पर
और जब भी करता हूँ एक कोशिश
नाकाम सी उसे चूमने की
बाहों से फिसल जाती है
'बेशर्म' कहकर
तुम्हारी तरह।

हवा भी
पिछले दरवाजे से
घुसकर निकलती है
बालकोनी में खुलने वाले
ट्रीचे से,
अंजुरी भर महक छोड़ जाती है
मेरे सिरहाने
फूल-पत्तियों से भरे
रुमाल में लिपटी
एक चिट्ठी सी,
जान बूझकर,
तुम्हारी तरह।

Sunday, March 8, 2009

हाँ, हाँ, मैं तुमसे प्यार करता हूँ....!!

चलो,
मैं कहे देता हूँ
लेकिन
क्या दुनिया बदल जायेगी
मेरे सिर्फ़ यह
कह देने भर से कि
मैं तुमसे प्यार करता हूँ।
चलो तुम अगर मानना भी चाहो
तो
मान लो
पर मेरा कहना
फ़िर भी यह ही है कि
यह दुनिया
वैसी ही रहेगी। रवि और रविंदर
को धर्म और जात में बाँट कर
पहचानती जहनियत
मेरे हाथ में बंधे
'रक्षासूत्रम' और
तुम्हारे हाथ में
पहने 'कड़े' से बनी
जात पात कि यह दीवार
बेशक नहीं गिरेगी
मेरे यह कह देने के
बाद भी कि
हाँ, मैं तुमसे प्यार करता हूँ।
मंदिरों और गुरुद्वारों
के खुदा बने इंसान
और महजबी जूनून बनकर
उनकी रगों में दौड़ता
पारे सा झक्क सफ़ेद लहू
कतई भी
सुर्ख नहीं होगा
शरमाकर तुम्हारे गालों सा
यह सुनकर भी कि
हाँ, हाँ, मैं सचमुच तुमसे प्यार करता हूँ....!!!