Friday, September 4, 2009

मार्च के आने तक...!!!

तुम्हारे
यूँ सहमकर
देखने से
कुछ पहले ही
मैं समझ गया था/ कि
हवा कुछ बदलाव है.
पुरवाई
रातभर में तो नहीं बनती पछुआ
और न ही
पतझढ़
एक दिन में आता है कभी.
तो क्या
मैं मान लूं
तुम्हारी इस चुप्पी
की सर्दियाँ आहट दे चुकी थी
बहुत पहले से ही .
या यूँ कि
बीते सावन में उस रोज़
सुबकते अमलतास
के तले तरबतर होते जा रहे रिश्तों
के बर्फानी हो जाने का
यकीन हो चला था.
मैं न भी चाहूँ
तो भी
इस हकीकत को तो नहीं
टाल सकूँगा कि
कचनार के झींगुरों वाले फूल
पलों में नहीं मुरझाते.
मार्च के आने तक.