Monday, July 30, 2012

करगिल

अबके बसंत


जब कुएं के पास के पीपल की फुनगी पर

चहकेगी चिरैया

इस घर का आंगन हो उठेगा और भी

खुशहाल।

बीते साल

अमराईयों पर पड़ी

बारिश की मार,

बहते खपरैलों के बाद

जब उनींदे से गांव

को घेर लिया था

झिबुआ बाबा की किरोपी ने

बच्चों को छोटी माता ने आ घेरा था,

उस घड़ी तुम

कहीं जूझ रहे थे

दो मोर्चों पर।

गांव से आई चि_ी पर

उभरे हालात और

टेसन की पटडिय़ां

खत्म होने वली पहाड़ी के पीछे। मुल्ला फौज से।

मरघटे के सन्नाटे और

चांदनी रात में

रह-रहकर चित्कारती

टिटहरी के आक्रांत स्वर

सहमा गांव का

कुआं और चौपाल।

अबके बड़े स्कूल

में पढऩे जाती बिटिया ने बताया

परचे में छपा है

वे लौट रहे हैं

ज़र्द चेहरों पर विजयी मुस्कान लिए,

घरों को ।

मुंडेरों से झांकती

गांव की लड़कियां

और चहचहाती

चिरैय्या।

फौजी बूटों की थाप से

उड़ती धूल में

मिलती गौधूलि वेला।

सतरंगी होता आसमान और

बसंती होती चुनरियां।



(करगिल की वर्षगांठ पर उन शहीदों के नाम, जो गांव को नहीं लौटे)