Thursday, March 3, 2016

आज मैं आकाश होना चाहता हूँ...

मैं आकाश होना चाहता हूँ
और तुम्हारे पास होना चाहता हूँ.
मीलों तक फैले
इस घास के मैदान
और पारदर्शी पानी की बहती
नदियों सी तुम्हारी बाहों को
छूना चाहता हूँ.
आज मैं आकाश होना चाहता हूँ.
मेरे सामने तुम
इस धरा सी
मुझ से हो दूर
बस ज़रा सी
मेरी तरफ़ देवदारों सी
बाहें उठाकर
मैं भी ज़रा सा झुककर
तुम्हें चूम लेना चाहता हूँ.
आज मैं आकाश होना चाहता हूँ.
घिरकर आते
बादलों को थाम के
इस हवा को मैं
तुम्हारे नाम से
इन सरगोशियों में
गुनगुनाना चाहता हूँ.
आज मैं आकाश होना चाहता हूँ.

Sunday, January 31, 2016

फिर वही ढर्रा ज़िंदगी का लौट आएगा

फिर वही ढर्रा ज़िंदगी का
लौट आएगा.
पर साथ रह ही जाएँगी
वो बातें, वो यादें.
चाहकर भी नहीं छोड़ पाओगी
वो ख़त, वो मेरी लिखावट की
आख़िरी निशानी.
फेंकने के ख़्याल को भी
झटके से झटक कर
सीने से लगा लोगी
वो ख़त.
सहेज सम्भालकर रख ही लोगी
सोने की चूड़ियों के साथ
ज़री की साड़ियों की तहों के बीच.
और भूल जाओगी.
फिर वही ढर्रा ज़िंदगी का
लौट आएगा.
और बरसों बाद कभी
खोल बैठोगी वही संदूक.
सोने की चूड़ियों के बीच
फीकी पड़ चुकी होगी
मेरे ख़तों की चमक.
फेंक दोगी एक तरफ़ अनमने से
एक नज़र डालकर.
'अब छोड़ो भी, बहुत हुआ
कौन संभाले
बरसों बरस'.
बस....
फिर वही ढर्रा ज़िंदगी का लौट आएगा.