तुम्हारे 
यूँ सहमकर 
देखने से 
कुछ पहले ही 
मैं समझ गया था/ कि 
हवा कुछ बदलाव है.
पुरवाई 
रातभर में तो नहीं बनती पछुआ 
और न ही 
पतझढ़ 
एक दिन में आता है कभी. 
तो क्या 
मैं मान लूं 
तुम्हारी इस चुप्पी 
की सर्दियाँ आहट दे चुकी थी 
बहुत पहले से ही . 
या यूँ कि 
बीते सावन में उस रोज़ 
सुबकते अमलतास 
के तले तरबतर होते जा रहे रिश्तों 
के बर्फानी हो जाने का 
यकीन हो चला था. 
मैं न भी चाहूँ 
तो भी 
इस हकीकत को तो नहीं 
टाल सकूँगा कि 
कचनार के झींगुरों वाले फूल 
पलों में नहीं मुरझाते. 
मार्च के आने तक.