तुम्हारे
यूँ सहमकर
देखने से
कुछ पहले ही
मैं समझ गया था/ कि
हवा कुछ बदलाव है.
पुरवाई
रातभर में तो नहीं बनती पछुआ
और न ही
पतझढ़
एक दिन में आता है कभी.
तो क्या
मैं मान लूं
तुम्हारी इस चुप्पी
की सर्दियाँ आहट दे चुकी थी
बहुत पहले से ही .
या यूँ कि
बीते सावन में उस रोज़
सुबकते अमलतास
के तले तरबतर होते जा रहे रिश्तों
के बर्फानी हो जाने का
यकीन हो चला था.
मैं न भी चाहूँ
तो भी
इस हकीकत को तो नहीं
टाल सकूँगा कि
कचनार के झींगुरों वाले फूल
पलों में नहीं मुरझाते.
मार्च के आने तक.
Dr. Ravi you are here, writing poems and art. on different issues but not on politics of the day or about politics ` alternative politics` which is need of the day.
ReplyDeleteRajeev Godara
poori rachna behtrin hai ,pasand aai bahut
ReplyDeleteसुबकते अमलतास को भीगते कचनार को सर्दियों की आहट को पछुआ हवा और पतझड़ को
ReplyDeleteकोई कैसे भुला दे
डॉ रवि बेहतरीन रचना
सुबकते अमलतास को भीगते कचनार को सर्दियों की आहट को पछुआ हवा और पतझड़ को
ReplyDeleteकोई कैसे भुला दे
डॉ रवि बेहतरीन रचना