Tuesday, June 23, 2009

कविता का अन्तिम पैरा...



मेरे प्रेम की शुरुआत
मेरी कविता के अंत में नहीं है.
और न ही वह सच है
जो मैंने लिख डाला है
कविताओं में.
अंतहीन, अनंत
हर्फ़ दर हर्फ़
बनते शब्द/
और उनके गूढ़ और जटिल
अर्थों की तरह ही
मेरी संवेदनाएं
और
मेरा प्रेम भी
शायद यूँ ही उलझा हुआ है/ और
रहेगा/ बिना कहे ही
शायद समझ पाओ तो
सही/ या फिर मायूसी
सी सहोगी
सही शब्दों को सुनने के
इंतजार में
ख़त्म होने वाली इस
कविता की तरह.

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