Thursday, April 30, 2009

आगे धूप है...


अब सुलग रहे हो


झुलसे तन


और छटपटाहट का


क्रंदन करती आत्मा के बीच।


इस तरह के


कठोर धरातल के


सूखकर चटक रहे


संबंधों को


सींचने का


तुम्हारा प्रयास कितना


कामयाब रहा है


तुम


अंदाजा लगा सकते हो।


मैं उसी दिन


तुम्हें कहना चाह रहा था।


जिस दिन तुमने


बढाया था


कदम


इस निर्जन और


कंटीली पत्थरीली राह पर।


उस घर का दरवाजा


बहुत दूर है/ समझाया कि


यहीं रहो इसी आकार में


विश्वास और चाहत की


छाया में।


मैंने कहा था ना


आगे धूप है॥!


"जिंदगी धूप, तुम घना साया"

3 comments:

  1. jindgi dhoop tum ghana saaya, aage dhoop hai,
    kya samanjasya baithaya hai, wah, khubsurat sanketik rachna.

    ReplyDelete
  2. बहुत खूब, अच्छी रचना

    ReplyDelete
  3. बहुत खूब, अच्छी रचना

    ReplyDelete