Saturday, May 2, 2009

बरगद नहीं, पीपल...




वह बरगद नहीं है


जिसकी छाँव में


रह पाते कई जन सुरक्षित


धूप, पानी और तूफानों से।


या जिसकी मजबूत डालों पर


घने पतों के बीच


छिपाछिपी खेलते रहते।


न ही वह इतना फैलाव लिए रहा


ख़ुद में कि


उसके दायरे में


भूखी नज़रों से बचे रहते


चिड़िया के कुछ बच्चे


और बसे रहते अपनी ही दुनिया में।


असल में


उसने कोशिश ही नहीं की


बरगद बनने की


जिसके विस्तार में


जगह पा सकते कई घोंसले।


फ़िर भी उसने


फैलाए रखी अपनी डालें


हर पंछी पखेरू के लिए,


अपनी जड़ों के नजदीक


पंहुंचने दी सूरज की रौशनी


ताकि पल सकें


कुछ और नन्हें पौधे भी।


जुटाई इतनी छाँव भी


जो काफ़ी रही सुस्ताने भर के लिए।


हाँ, यह सिर्फ़ मैं जानता हूँ


इतना करने के बाद भी


पीपल का वह पेड़


बरगद क्यों नहीं बना।
(पिता जी के लिए..)

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