अब ऐसा क्यों
है कि मुझे 
अँधेरी रातें रास नहीं आ रही 
पहले की तरह। 
झील के उस पार 
छोटी सी पहाड़ी के सिरे पर 
टिमटिमाने वाले दिए की 
रौशनी भी नज़र नहीं 
आ रही। 
क्यों स्याह आसमान में 
आवारा घूम रहा बादल का 
यह टुकडा 
आज मेरा नाम नहीं पुकार रहा. 
क्यों झील के पानी पर 
भी आज नहीं थिरक रही चांदनी. 
क्यों 
उसके हाथों की ठंडी 
छुअन मेरी उंगलिओं के पोरों से 
होते हुए नहीं पहुँच रही 
मुझ तक एक गहरी 
ठंडी साँस बनने के लिए 
.....और ये चाँद आजकल गुस्से में क्यों है?
sunder rachna.
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