Monday, May 11, 2009

एक अच्छे आदमी के लिए दो मिनट...

वो अच्छा आदमी था
बेजुबान काम करने वाला.
उसने कभी शिकायत नहीं की
पगार बढ़ने की मांग भी नहीं.
और न ही कुर्सी के पास टेबल फैन लगाने की
वो अच्छा आदमी था.
चिल्लाने वाले मोटे बॉस
की नक़ल भी
कभी नहीं की उसने,
ड्यूटी के बाद भी नहीं.
न कभी डेस्क की गलतियाँ
'प्रूफ़ वालों' पर डालने की परम्परा का विरोध.
'मेरा उससे अधिक वास्ता नहीं रहा, लेकिन प्रोडक्शन वालों ने बताया
वो अच्छा आदमी था.' जीएम ने कहा.
कल ही उसने
मिन्नत की थी पहली बार
'वीकली ऑफ एडजस्ट' करने के लिए,
वोह छुट्टी पा गया, ह
मेशा के लिए.
कृष्ण कुमार अच्छा आदमी था.
दो मिनट का मौन
बहुत है उस जैसे
अच्छे आदमी (कर्मचारी) के लिए.
अब जाइये,
लिखिए, टाईप कीजिये
दुनिया भर के बुरे लोगों की खबरें.
(यह कविता साल 2003 में दुर्घटना में मारे गए दैनिक भास्कर के प्रूफ़ रीडर कृष्ण कुमार के लिए लिखी थी)

Saturday, May 2, 2009

चाँद गुस्से में है...

अब ऐसा क्यों
है कि मुझे
अँधेरी रातें रास नहीं आ रही
पहले की तरह।
झील के उस पार
छोटी सी पहाड़ी के सिरे पर
टिमटिमाने वाले दिए की
रौशनी भी नज़र नहीं
आ रही।
क्यों स्याह आसमान में
आवारा घूम रहा बादल का
यह टुकडा
आज मेरा नाम नहीं पुकार रहा.
क्यों झील के पानी पर
भी आज नहीं थिरक रही चांदनी.
क्यों
उसके हाथों की ठंडी
छुअन मेरी उंगलिओं के पोरों से
होते हुए नहीं पहुँच रही
मुझ तक एक गहरी
ठंडी साँस बनने के लिए
.....और ये चाँद आजकल गुस्से में क्यों है?

बरगद नहीं, पीपल...




वह बरगद नहीं है


जिसकी छाँव में


रह पाते कई जन सुरक्षित


धूप, पानी और तूफानों से।


या जिसकी मजबूत डालों पर


घने पतों के बीच


छिपाछिपी खेलते रहते।


न ही वह इतना फैलाव लिए रहा


ख़ुद में कि


उसके दायरे में


भूखी नज़रों से बचे रहते


चिड़िया के कुछ बच्चे


और बसे रहते अपनी ही दुनिया में।


असल में


उसने कोशिश ही नहीं की


बरगद बनने की


जिसके विस्तार में


जगह पा सकते कई घोंसले।


फ़िर भी उसने


फैलाए रखी अपनी डालें


हर पंछी पखेरू के लिए,


अपनी जड़ों के नजदीक


पंहुंचने दी सूरज की रौशनी


ताकि पल सकें


कुछ और नन्हें पौधे भी।


जुटाई इतनी छाँव भी


जो काफ़ी रही सुस्ताने भर के लिए।


हाँ, यह सिर्फ़ मैं जानता हूँ


इतना करने के बाद भी


पीपल का वह पेड़


बरगद क्यों नहीं बना।
(पिता जी के लिए..)