चाँद भी
कभी झांकता है
आँगन की
और खुलने वाली खिड़की से
जैसे कोशिश में हो देखने की/ कि
कितना प्यार है मेरे दिल में उसके लिए
क़समें भी देता है वास्ता भी,
तुम्हारी तरह।
चांदनी भी
तो बिखर जाती है
खिड़की से सटे बिस्तर की
ठंडी सफ़ेद चादर पर
और जब भी करता हूँ एक कोशिश
नाकाम सी उसे चूमने की
बाहों से फिसल जाती है
'बेशर्म' कहकर
तुम्हारी तरह।
हवा भी
पिछले दरवाजे से
घुसकर निकलती है
बालकोनी में खुलने वाले
ट्रीचे से,
अंजुरी भर महक छोड़ जाती है
मेरे सिरहाने
फूल-पत्तियों से भरे
रुमाल में लिपटी
एक चिट्ठी सी,
जान बूझकर,
तुम्हारी तरह।
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