Friday, March 20, 2009

तुम सब ठीक कहते हो...

हर्फ़ इस हद पर आकर

खो जाते हैं कहीं

आवाज़ भी

पड़ने लगती है

मध्यम

तन्हाई के दरम्यान

उठती हूक सीने को चीरती है

मेरे शब्दों के अर्थ

ज़रा-ज़रा होकर बिखरते हैं

आंखों के आगे पुरनम तैरती है।

तब बोल पाना

कितना दुश्वार होता है।

यह मैं समझ सकता हूँ

मैंने देखा है तुम्हें

रोटी के निवाले को

सूखे गले से उतारने का जतन करते।

उस वक्त वह टुकडा

किसी कठोर सच्चाई जैसा लगता है

जिसपर आंसुओं का पानी

बेअसर रहता है।

रुंधे गले

से रह-रहकर सुबकता दिल,

मचलती भावनाओं

और उछलते विद्रोह के बीच

जाने कहाँ से वह शून्य आ जाता है

जहाँ मेरे शब्द खो जाते हैं

अर्थ गर्त हो जाते हैं।

मेरे हर्फ़ हवा और

मैं मिट्टी

तुम्हारे तर्कों के बीच

मैं मान लेता हूँ की

तुम सब ठीक कहते हो।


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