Friday, November 2, 2018

पहाड़ ओढ़ लेते हैं ख़ामोशी

पहाड़
ओढ़ लेते हैं
ख़ामोशी शाम से.
लपेट लेते हैं
सफ़ेद ऊनी कम्बल
बादलों से बुने हुए.
रात लेती है आग़ोश में
देवदारों को.
चाँद मुस्कुरा कर चल देता है
अगले चौराहे के लैंपपोस्ट तले बैठने.
रख देता है झोला बाईं ओर
उठा लेता है बाँसुरी.
राग पहाड़ी
हवा के ठंडे झोंके सा टकराता है
खिड़की के काँच पर.
घड़ी की सुइयाँ खींच देती हैं
परदे को थोड़ा और.
उधर मैदानों में
कोई खोलता है खिड़की
झाँकता है बाहर.
साफ़ है आसमान
तारे भी हैं आकाश में.
सफ़ेद डंडे
नीले हों तो 

नींद भी आ जाए.

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