Friday, November 2, 2018

बूँद बन बनकर बरसती हैं

बूँद बन बनकर 
बरसती हैं 
ख़्वाहिशें.
क़तरा क़तरा रिसती हैं
सराबोर
शामें.
रुक रुककर गरजती है
दबी दबी
धड़कनें.
रह रह कर कौंधती हैं
चमकते दिनों की
यादें.
आँखें मल मलकर देखती हैं
बाज़ार भर की
रोशनी.
सरसराती सी बह जाती है
तुम्हारी सीली
खूशबू.
सुलग उठती है भीतर कहीं
अंगीठी के कोयलों की
गंध.
पीली छतरी वाली लड़की
छिटक देती है ज़ुल्फ़ों से
बारिश भरी शाम.

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