Friday, November 2, 2018

ईदगाह हिल्ज़ से अमलतास !!

नहीं...
अभी तक तो नहीं भूला हूँ
उन दुपहरियों को.
न ही उन झींगूरों को
जो अब भी गातें हैं कोई गीत.
तुम्हारा झूठमूठ का ग़ुस्सा भी याद है
जो तुम दिखायी थी
उन झींगूरों पर.
‘बात भी नहीं करने दे रहे’
मेरा हँसना और चिढ़ा देता था तुम्हें.
‘तुम्हारा बस चले तो
घर भर लो इन अमलतास के पेड़ों से.’
हाँ, मैं भर लेना चाहता था घर
उन पीले फूलों से...
झींगूरों के गीतों से
और खो जाना चाहता था इतने सूकून के बीच.
नहीं चाहता था
जागना उस ख़्वाब से
रोक लेना चाहता था वक़्त को
और तुम्हें लेकर लौट गए उस ऑटो को.
मैं भूला नहीं हूँ
उस आख़िरी दोपहर को
जब अचानक उमड़ आए थे बादल
तेज़ आँधी की चपेट में आया अमलतास.
उसके बाद की शामें
कुछ याद नहीं.
सुनो....
याद्द आया....
तुमने लिखा था ना कि
ईदगाह हिल्ज़ से
रामनगर की सीढ़ियों के मुहाने पर भी
खड़ा है एक गुमसुम
अमलतास !!!

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